सोमवार, 8 मार्च 2010
क्या इतिहास बनाएगा महिला दिवस!
एक बार फिर महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश होने को तैयार है। तेरह वर्षो से टलते आए इस विधेयक को लेकर सरकार इस बार आशान्वित है। उसे भाजपा और वाम दलों का समर्थन प्राप्त है। महिला दिवस पर यह पेश होगा। अगर यह पारित हो जाता है, तो यह एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी घटना होगी। भारतीय महिलाओं के लंबे संघर्ष की सबसे बड़ी सफलता।
कैबिनेट से मंजूरी मिलने के बाद एक बार फिर महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश होने को तैयार है। बहुमत की दृष्टि से देखा जाए तो इसके पारित होने में कोई परेशानी नजर नहीं आती। कांग्रेस, भाजपा और वाम दलों का समर्थन इसे हासिल है, लेकिन राजद, सपा के साथ-साथ बसपा भी महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण के अंदर दलित व पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग करके इसमें अड़ंगा लगाने की तैयारी में है। पिछले करीब डेढ़ दशक से यह विधेयक आम सहमति के अभाव में लटका पड़ा है। सरकार चाहे भाजपा की रही हो या कांग्रेस की, कई विधेयक बहुमत के आधार पर पारित कराए गए, लेकिन यह एक मात्र विधेयक है, जिसे आम सहमति से पारित कराने की बात कहकर लगातार टाला जा रहा है।
इस बार हालांकि इसके पारित हो जाने की संभावना दिखती है। माहौल पूरी तरह इसके पक्ष में है। महंगाई के मुद्दे पर एकजुट हुआ विपक्ष इस मुद्दे पर अलग-थलग नजर आता है। भाजपा और वाम दल इस विधेयक को पारित कराने के मुद्दे पर कांग्रेस के साथ नजर आते हैं, लेकिन संशय अब भी बरकार है। कहीं आम सहमति का जिन्न फिर से न बाहर आ जाए और एक बार फिर यह विधेयक संसद में सिर्फ पेश होकर न रह जाए। दअसल, आजादी के पिछले छह दशक में पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के साथ जिस तरह दोयम दज्रे का व्यवहार होता रहा है, उससे इस संशय को और बल मिलता है।
बेशक आजादी के पिछले छह दशक में देश ने कई क्षेत्रों में प्रगति की। महिला सशक्तिकरण की बात भी जोर-शोर से उठाई गई। कई क्षेत्रों में महिलाओं ने कामयाबी के झंडे गाड़े। इस वक्त राष्ट्रपति से लेकर लोकसभा अध्यक्ष तक महिला हैं और अब विपक्ष की नेता सभी महिलाएं हैं। लेकिन यह महिला सशक्तिकरण के सिक्के का एक ही पहलू है। दूसरा पहलू आज भी महिलाओं दयनीय स्थिति को दर्शाता है। चाहे, स्वास्थ्य का मामला हो या शिक्षा का, महिलाओं को कभी बराबरी का हक नहीं मिला। हालांकि संविधान और कानून समानता की बात करते हैं, लेकिन वास्तविकता के धरातल पर स्थिति बिल्कुल भिन्न है।
महिलाओं का उत्पीड़न रोकने के लिए सरकार ने दहेज निषेध कानून बनाया; सबको समान शिक्षा मिल सके, इसके लिए शिक्षा के अधिकार का अधिनियम भी पारित किया; महिलाओं को घरेलू हिंसा ने निजात दिलाने के लिए भी कानून बनाए गए, लेकिन इनकी समुचित अनुपालना के अभाव में आज भी प्रति दिन औसतन छह नववधुएं दहेज की भेंट चढ़ती हैं, महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हो रही हैं। समान और नि:शुल्क शिक्षा का प्रावधान होने के बावजूद केवल 39 प्रतिशत महिलाएं प्राथमिक स्कूलों का मुंह देख पाती हैं। माता-पिता उन्हें इसलिए स्कूल नहीं भेजते, क्योंकि उन्हें घर के कामकाज में हाथ बंटाना होता है। अधिकांश क्षेत्रों में महिलाएं आज भी पुरुषों के भोजन करने के बाद ही खाना खाती हैं और अगर भोजन कम पड़ जाए तो पुरुषों के खाने के बाद बचे भोजन से ही उसे अपनी भूख मिटानी होती है। फिर उनके स्वास्थ्य की फिक्र कौन करे? यहां बराबरी का कोई सिद्धांत लागू नहीं होता। देश के कई क्षेत्रों में कन्या भ्रूण की पहचान कर गर्भ में ही उनकी हत्या कर दी जाती है।
महिला आरक्षण विधेयक भी महिलाओं के प्रति पुरुष प्रधान राजनीति के इसी दोयम दज्रे के रुख का शिकार हुआ है। अब तक इस पर सिर्फ राजनीति की जाती रही है, इसे पारित कराने को लेकर किसी भी राजनीतिक दल या सरकार में इच्छाशक्ति नजर नहीं आई। संयुक्त मोर्चा और भाजपा की सरकार ने बारी-बारी से इसे संसद में पेश तो किया, लेकिन आम सहमति का हवाला देकर इसे पारित होने से रोके रखा। 2004 में सत्ता में आने के बाद कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने इसे अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल किया। लेकिन यूपीए सरकार इसे संसद में पेश करने में नाकाम रही। दूसरी बार सत्ता हासिल करने के बाद यूपीए सरकार इसे संसद में पेश करने और पारित करने की तैयारी में है। हालांकि इस पर उसे भाजपा और वाम दलों का साथ तो है, लेकिन मुलायम, शरद, लालू के रुख आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग को लेकर बेहद कड़े हैं। विधेयक का हश्र पहले की तरह होगा या इस बार कुछ नया, यह तो आठ मार्च के बाद ही पता चलेगा, जब इसे राज्यसभा में पेश किया जाएगा।
अड़ंगा-दर-अड़ंगा
सबसे पहले सितंबर, 1996 में संयुक्त मोर्चा सरकार के कार्यकाल में विधि मंत्री रमाकांत डी खालप ने इसे लोकसभा में पेश किया। लेकिन मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद ने आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग कर इसे पारित होने से रोक दिया। जून, 1998 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के कार्यकाल में भी इसे पेश किया गया, लेकिन बात नहीं बनी। नवंबर, 1999 में राजग सरकार ने इसे एक बार फिर लोकसभा में पेश किया, लेकिन कांग्रेस और वाम दलों के समर्थन के लिखित आश्वासन के बावजूद यह पारित नहीं हो सका। वर्ष 2002 और 2003 में भी इसे लोकसभा में पेश किया गया, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला रहा।