सोमवार, 29 मार्च 2010

पानी की करुण कहानी


जल संकट दुनिया भर की समस्या है, लेकिन हमारे यहां यह अभाव है। हर स्तर पर पानी के साथ खिलवाड़ हो रहा है। नदियां सूख गईं या प्रदूषित हैं। तालाब, कुएं गायब हो गए। भूजल नीचे जा रहा है। प्यास बढ़ रही है, पानी खत्म हो रहा है। आजादी के बाद हमने सोचा जरूर, किया कुछ नहीं। दोषपूर्ण सरकारी परियोनाओं ने पानी के स्रोत को बिगाड़ दिया। बढ़ती आबादी के साथ भविष्य के लिए कोई कारगर योजना नहीं बनाई। समाज भी बेखबर और लापरवाह रहा। अपने जीवन के मूल तत्वों से उसकी इस बेरुखी का नतीजा है जल संकट। बल्कि हम जिस पर्यावरण विनाश से जूझ रहे हैं, उसमें भी इसका कम दोष नहीं है। लालच प्रकृति के अथाह खजाने को खाली कर रहा है। आज जल दिवस पर हमें इन खतरों के प्रति सचेत होकर इनसे लड़ने और सबक लेने का संकल्प करना चाहिए। हमारा उद्देश्य देश-समाज को हरा-भरा रखने का होना चाहिए और इसके लिए हरित अभियान छेड़ देना चाहिए।

इन दिनों पूरी दुनिया जल संकट से जूझ रही है। भारत भी इस समस्या से अछूता नहीं है, बल्कि यहां पानी का संकट दूसरे देशों के मुकाबले कहीं अधिक है। भूजल स्तर निरंतर नीचे गिर रहा है। कहीं-कहीं तो भूजल भंडार बिल्कुल खाली हो गया है। नदियों का पानी पीने लायक नहीं बचा। कहीं नदियां सूख गईं तो कहीं बुरी तरह प्रदूषित हैं।
आजादी के पिछले छह दशक में यह संकट कई गुना बढ़ा है। आजादी के समय जहां केवल 232 गांव ऐसे थे, जहां पीने का पानी नहीं था, वहीं अब ऐसे गांवों की संख्या सवा दो लाख हो गई है। गांव, शहर हर जगह लोग पेयजल संकट से जूझ रहे हैं। शहरों में भी विभिन्न स्थानों पर टैंकरों से पानी पहुंचाया जा रहा है। लोग बाल्टियां, डिब्बे आदि लेकर टैंकरों का बेसब्री से इंतजार करते हैं और उसे देखते ही टूट पड़ते हैं। ऐसे में कौन-कब-किस पर गिर पड़े और वहां लड़ाई-झगड़े की स्थिति पैदा हो जाए कोई नहीं कह सकता।
दरअसल, भूजल के भंडारों को पुनजीर्वित करने का काम नदियां करती हैं, लेकिन आज नदियां ही सूख गई हैं। कई जगह नदियां नालों में तब्दील हो गई हैं। नदियों में प्रदूषण का स्तर इतना बढ़ गया है कि भूजल भंडार भी इसकी चपेट में आ गए हैं। इसलिए जल जनित बीमारियों की संख्या भी बढ़ी है। यूएन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में करीब 21 प्रतिशत बीमारियां जल जनित होती हैं।
पानी के संकट को देखते हुए यदि ऐसा कहा जा रहा है कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए ही होगा तो यह गलत नहीं है। बल्कि मुङो तो लगता है पानी के लिए झगड़े की शुरुआत हो चुकी है। गली-मोहल्लों में पानी के लिए टैंकर के इंतजार में खड़े लोगों में तू-तू मैं-मैं आम चीज है। राजस्थान में पानी की लड़ाई में 15 लोग जान गंवा चुके हैं। ऐसी स्थिति दुनिया के अन्य हिस्सों में भी है।
पानी के इस बढ़ते संकट के तीन प्रमुख कारण हैं। पहला तो यह कि विकास के नाम पर सरकारों ने पानी की जो परियोजनाएं चलाईं, उससे उसका मूल स्रोत बिगड़ा। दूर-दूर से पानी लाकर शहरों को देने और बांध बनाने की जो नीति सरकार के अपनाई, उससे पानी का विकें्िरत प्रबंधन समाप्त हो गया और इसका स्थान कें्रीकृत प्रबंधन ने ले लिया। ऐसा करके सरकार ने एक तरह से समाज को इसकी जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया, जबकि पानी का बेहतर प्रबंधन सामुदायिक तरीके से ही हो सकता है। पहले ऐसा होता भी था। तब लोग जल संचयन के जोहड़ों का निर्माण करते थे। लेकिन जबसे सरकार ने इसका प्रबंधन अपने जिम्मे लिया, जोहड़ उपेक्षित रह गए और अंतत: सूख गए।
दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह है कि आजादी के बाद हमने पानी के पर्यावरणीय प्रवाह का हिसाब-किताब नहीं रखा। सरकार ने तय तो यह कर रखा है कि लोगों तक पीने का पानी पहुंचाना उसकी प्राथमिकता होगी, लेकिन पानी पहुंचाए जाते हैं उद्योगों को, खेती को। औद्योगिक जरूरतों के साथ-साथ कृषि कार्य के लिए भी भूमिगत जल का ही दोहन होता है।
बढ़ते जल संकट का तीसरा महत्वपूर्ण कारण लोगों द्वारा इसका अनुशासित उपयोग नहीं करना है। अक्सर लोग नलके खुला छोड़ ब्रश करना शुरू कर देते हैं। नहाने-कपड़े धोने के लिए बाल्टियों पानी का इस्तेमाल करते हैं। रास्तों और सार्वजनिक स्थलों पर लोगों के लिए लगाए गए नलके अक्सर खुले पाए जाते हैं। बहुत कम लोग आगे बढ़कर उसे बंद करने की जहमत उठाते हैं।
यदि यही स्थिति जारी रही और यूं ही भूमिगत जल का दोहन होता रहा तो आने वाले दिनों में स्थिति और बिगड़ेगी। इसलिए हमें अभी से इसके संरक्षण के उपाय सोचने होंगे। सबसे पहले तो हमें नदी और सीवर को अलग कर देने की जरूरत है। कई जगह सीवरों को नदियों में मिला दिया गया है, जिससे प्रदूषण का स्तर बढ़ा है। यमुना इसका उदाहरण है। इसके अतिरिक्त हमारे यहां सबसे अधिक भूमिगत जल का दोहन कृषि कार्यो के लिए होता है। इसे नियंत्रित करने की जरूरत है। कृषि एवं उद्योगों के लिए सीवरों के पानी का इस्तेमाल होना चाहिए, न कि भूमिगत जल का। भूमिगत जल का उपयोग केवल पीने के पानी के लिए किया जाना चाहिए।
नदियों के किनारे सीमेंट और कंक्रीट के जंगल बनाने के बजाय हमें ऐसे पेड़-पौधे लगाने चाहिए, जिससे भूमि का कटाव रुके। साथ ही लोगों को पानी के अनुशासनात्मक इस्तेमाल के लिए प्रेरित करना होगा। इसके लिए नियम-कायदे-कानून बनाने की भी जरूरत है। इसके अलावा सरकार ने पानी के प्रबंधन की जो कें्रीकृत नीति शुरू की है, उसे बदलने की जरूरत है। पानी के प्रबंधन के लिए सामुदायिक विकें्रीकरण को बढ़ावा देना होगा और जनमानस को वर्षा जल संचयन से जोड़ना होगा।

(राजें्र सिंह से बातचीत पर आधारित)

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