रविवार, 21 मार्च 2010

वही कसक, छह दशक


अल्पसंख्यकों के साथ दलित राजनीति भी हमारी चुनाव रणनीति का अभिन्न हिस्सा। दलितों समेत कमजोर/वंचितों के लिए कई कदम उठाए गए। उनके नेताओं को सत्ता भी मिली, लेकिन संतोष करने लायक कुछ नहीं बदला। दलित आज भी वंचित और दमित हैं।
बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर आजाद भारत में दलितों के लिए भी वही स्थान चाहते थे, जो उच्च जाति को बहुत पहले से प्राप्त था। वे जानते थे कि सदियों से पिछड़े व शोषित दलित आजाद भारत में और हाशिये पर जा सकते हैं। उनका यह भी मानना था कि जब तक दलितों को राजनीतिक सत्ता नहीं मिलती, उनका उत्थान संभव नहीं है। इसलिए उन्होंने संविधान में दलितों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया। हालांकि पहले यह केवल दस साल के लिए तय किया गया और लक्ष्य रखा गया कि इन दस सालों में दलित राजनीतिक ताकत हासिल कर लेंगे। लेकिन बाबा साहब का यह सपना आजादी के साठ दशक बाद भी पूरा नहीं हुआ और आरक्षण का प्रावधान हर दस साल पर बढ़ता रहा।
हालांकि इस बीच मायावती, राम विलास पासवान जसे कुछ दलित नेता उभरकर सामने आए और उन्होंने सत्ता भी हासिल की, लेकिन दलितों की स्थिति में जिस सुधार की उम्मीद थी, वह नहीं हुई। आजादी के इन साठ सालों में देश के विकास से जितना फायदा समाज की अगड़ी जातियों को हुआ, उतना दलितों को नहीं हुआ। आज भी वे हाशिये पर हैं। संविधान में उनके लिए अनिवार्य व नि:शुल्क शिक्षा का प्रावधान होने के बावजूद उनमें शिक्षा की दर काफी कम है।
दलितों में शिक्षा के स्तर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश में जितने भी अशिक्षित लोग हैं, उनमें 95 प्रतिशत दलित हैं। दलितों में, जिनकी संख्या देश में तकरीबन 25 करोड़ है और जो हमारी कुल आबादी का 24.4 प्रतिशत हैं, पुरुषों की साक्षरता दर 31.48 प्रतिशत और महिलाओं की 10.93 फीसदी है। साफ है कि संविधान में उनके शैक्षणिक उत्थान के लिए जो प्रावधान किए गए हैं, उसका पूरा लाभ उन्हें नहीं मिल रहा। इसकी कई वजह है, जिनमें से एक प्रमुख वजह उनके भीतर घर कर गई सामाजिक असुरक्षा की भावना है। ऊंची जातियों के शोषण से डरा-सहमा समाज का यह तबका आज भी अपने बच्चों को स्कूल भेजते समय एक अनजाने डर से ग्रस्त रहता है। कई इलाकों में दलित महिला कर्मियों ने ऊंची जाति के अपने पुरुष सहकर्मियों के खिलाफ छेड़खानी, शोषण या उन्हें परेशान करने की शिकायत की है। आज भी तकरीबन 80 प्रतिशत दलित देश के दूर-दराज व ग्रामीण इलाकों में रहते हैं, जहां शिक्षा, स्वास्थ्य जसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं। तकरीब 60 प्रतिशत दलित आज भी भूमिहीन हैं, जबकि लगभग 37 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करते हैं। दलित बच्चों में कुपोषण की दर 54 फीसदी तक है, जिनमें से 21 प्रतिशत का वजन स्वास्थ्य के लिए निर्धारित मापदंड से काफी कम है, जबकि कुपोषण के कारण 12 प्रतिशत दलित बच्चों की मौत पांच साल से पहले हो जाती है।
छुआछूत को असंवैधानिक घोषित किए जाने के बावजूद उनके साथ अछूतों का व्यवहार समाप्त नहीं हुआ है। खासकर, ग्रामीण इलाकों में और दक्षिणी राज्यों में इसका प्रभाव आसानी से देखा जा सकता है। आज भी उन्हें स्कूलों व ग्राम सभाओं की बैठक में एकसाथ बैठने की अनुमति नहीं है। मंदिरों, धर्मशालाओं और थानों में उनका प्रवेश वर्जित है। डॉक्टर उन्हें स्वास्थ्य सेवा देने से मना कर देते हैं। डाकिये भी उनके गांवों में डाक पहुंचाने से इनकार कर देते हैं। यहां तक कि मौत के बाद भी उन्हें समानता का हक नहीं मिलता। उन्हें न तो सार्वजनिक रास्तों के इस्तेमाल की अनुमति होती है और न ही सार्वजिक श्मशान के इस्तेमाल की। आंकड़ों के मुताबिक करीब 37.8 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में दलित और ऊंची जाति के बच्चे भोजन के समय अलग-अलग बैठते हैं। ये सब आजाद भारत का ऐसा सच है, जिसे शहरों में बैठे नहीं देखा जा सकता, जहां जाति बंधन धीरे-धीरे दम तोड़ने लगा है।
देश के आर्थिक विकास में इस वर्ग का अहम योगदान है। खासकर कृषि क्षेत्र में, जहां ज्यादातर मजदूर दलित ही होते हैं। लेकिन विकास की दौड़ में वे स्वयं काफी पीछे रह गए हैं। भूस्वामियों द्वारा उनका शोषण किसी से छिपा नहीं है। दिनभर खेतों में काम करने के बाजवूद उन्हें नाममात्र का वेतन दिया जाता है। कार्य सहभागिता दर दलित महिलाओं की 25.98 फीसदी तो पुरुषों की 22.25 प्रतिशत है, लेकिन आज भी उनके श्रम का इस्तेमाल आम तौर पर चमड़ा उद्योग, बीड़ी उद्योग जसे असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और बुनकर, मेहतर, कारीगर के रूप में ही होता है, जहां उनका जमकर आर्थिक शोषण होता है।
तमाम संवधानिक सुरक्षा के बावजूद दलितों का शोषण और उनके खिलाफ होने वाले अपराधों पर अंकुश नहीं लग रहा। आंकड़ों पर यकीन करें तो प्रतिदिन करीब तीन दलित महिलाएं बलात्कार की शिकार होती हैं, जबकि दो दलितों की हत्या कर दी जाती है और इतने के ही घर जला दिए जाते हैं। करीब ग्यारह दलित प्रतिदिन पीटे जाते हैं। दरअसल, हमारा सामाजिक ताना-बाना ही कुछ इस तरह का है कि संवैधानिक प्रावधान उसके सामने बौने हो जाते हैं। पुलिस-प्रशासन सब जाति-व्यवस्था के आगे बेबस हो जाते हैं। दलितों की स्थिति में यदि वास्तव में सुधार लाना है, तो हमें सबसे पहले इस सामाजिक ताने-बाने को बदलना होगा और दलितों में शिक्षा का स्तर व जागरुकता बढ़ानी होगी, जिसकी बात बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर ने भी कही थी। तभी वास्तव में उनका विकास हो पाएगा और आजाद भारत में उन्हें वह स्थान मिलेगा, जिसका सपना बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर ने देखा था। हालांकि 1960 के दशक में भू सुधार आंदोलन लागू होने के बाद दलितों की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। उनमें अपने अधिकारों को लेकर जागरुकता भी आई है, जिसकी वजह से समाज के कुछ हिस्सों से ही सही छुआछूत जसी कुरीतियां मिटने लगी हैं। दलित अब समाज में अपने हक के लिए आवाज उठाने लगे हैं। लेकिन आज भी उनके उत्थान के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है।