सोमवार, 12 अप्रैल 2010
पढ़ो-लिखो साधिकार
वरिष्ठ पत्रकार देवदत्त से बातचीत पर आधारित
अनिवार्य शिक्षा कानून सही दिशा में बेहतर कदम है। अफसोस यह है कि इसे आने में छह दशक लग गए। वैसे भी क्रांतिकारी कदम उठाने में स्वाभाव से यथास्थितिवादी सरकारें जानबूझकर विलंब करती हैं। फिर प्राथमिक शिक्षा हमारी प्राथमिकताओं में कभी नहीं रही। इस कानून को अमल में लाने में ढेर सारी दिक्कतें हैं। पूरी संरचना खड़ी करने का सवाल है। फिर गरीबी भी आड़े आनी है। फिर भी यह उम्दा बात हुई है, जिसे कारगर होने में समय लगेगा।
इसमें कोई दो राय नहीं कि यह एक बेहतर और सही कदम है। हालांकि यह बहुत पहले हो जाना चाहिए था। लेकिन इसमें देर हुई। फिर भी कहा जा सकता है, ‘देर आयद दुरुस्त आयद।ज् वास्तव में यह देर नीयतन थी। सत्तासीन लोगों ने जानबूझकर इसमें देरी की, क्योंकि कोई भी क्रांतिकारी परिवर्तन उनके हित में नहीं होता। दरअसल यह हमारी राजनीतिक संस्कृति का अंग बन गया है कि यदि कुछ अच्छा काम है और उसके होने से राजनीतिक वर्ग का नुकसान हो सकता है, तो वे उसमें जानबूझकर देरी करते हैं, क्योंकि वे इसे रोक नहीं सकते। देश के ज्यादा से ज्यादा लोग अशिक्षित रहें, यह राजनेताओं के हित में है, ताकि उनका वोटबैंक सुरक्षित रहे।
यह राजनीतिक दलों की कमजोर इच्छाशक्ति और नीयत का ही नतीजा है कि इसे बनने में आजादी के छह दशक से अधिक का समय लग गया। राजनीतिक दलों ने जबानी तौर पर तो हमेशा प्राथमिक शिक्षा को प्राथमिकता देने की बात कही, लेकिन व्यवहार में उन्होंने उच्च शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया। कई ऐसे उदाहरण हैं, जब सरकार ने उच्च शिक्षा के लिए प्राथमिक शिक्षा के बजट में कटौती की। छह जुलाई, 2007 को पायनियर अखबार में छपी एक खबर के मुताबिक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय से देशभर में 16 नए विश्वविद्यालय और पिछड़े वर्ग के लिए 355 कॉलेज खोलने के मकसद से प्राथमिक शिक्षा के अनुदान में कटौती के लिए कहा। प्रधानमंत्री का यह निर्देश प्राथमिक शिक्षा को लेकर सरकारी नजरिये को दर्शाता है। अक्सर कें्र राज्यों को प्राथमिक शिक्षा में अधिक से अधिक निवेश की बात कहकर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता है, तो राज्य सरकारें संसाधन नहीं होने की बात कहकर हाथ खड़े कर देती हैं। अगर इस दिशा में सचमुच कुछ किया जाना है तो राजनीतिक वर्ग और सत्तासीन लोगों को अपनी नीयत बदलनी होगी अपना स्वभाव बदलना होगा।
यह कानून तो बना दिया गया है, पर इसके लागू होने में अभी बहुत सी कठिनाइयां सामने आएंगी। पहली मुश्किल तो यह है कि इसे राज्य सरकारों को लागू करना है और अब तक इस दिशा में राज्य सरकारों ने कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं। वे भी उतनी ही आलसी रही हैं, जितनी कें्र की सरकार। फिर, स्कूल व्यवस्था में भी परिवर्तन की जरूरत है। 1998-99 में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने देश की स्कूल व्यवस्था को बुरी हालत में बताया था और मुङो नहीं लगता कि दस-बारह साल बाद भी उसमें कोई परिवर्तन आया है। आज भी स्कूलों की वही हालत है।
इसके अलावा बच्चों को स्कूल में रोके रखना और ड्रॉप आऊट पर रोक लगाना बेहद चुनौतीपूर्ण होगा। 2005 के आंकड़ों के अनुसार देश के 18,50,000 बच्चों में से 8,30,000 छह से चौदह आयुवर्ग के हैं। दो-तीन साल पहले तक इस उम्र के करीब 90 प्रतिशत बच्चों का स्कूल में पंजीकरण दिखाया गया। लेकिन कितने बच्चों ने पंजीकरण के बाद स्कूल छोड़ दिया, इसका रिकॉर्ड नहीं है। माध्यमिक शिक्षा तक पहुंचते-पहुंचते स्कूल में रहने वाले बच्चों की संख्या करीब 59 फीसदी रह जाती है। यानी बच्चों को स्कूल में रोके रखना एक बड़ा काम है। दरअसल, बच्चे हमारी गृहस्थ अर्थव्यवस्था, घरेलू अर्थव्यवस्था, देहाती अर्थव्यवस्था का एक अहम हिस्सा हैं। अपने घरों में, खेतों पर या अपने पैतृक व्यवसाय के लिए छोटा-मोटा काम करते वक्त वे बाल मजदूर नहीं कहलाते, लेकिन इससे उनकी पढ़ाई तो बाधित होती ही है।
शिक्षा चाहे किसी भी स्तर की हो, उसमें अध्यापकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। उच्च शिक्षा में अध्यापकों की स्थिति बेहतर है, लेकिन प्राथमिक शिक्षकों की स्थिति बेहद दयनीय है। वेतन से लेकर अन्य मामलों में भी उनके साथ दोयम दज्रे का व्यवहार होता है। अक्सर देखा गया है कि अध्यापक पर्याप्त वेतन न मिलने की बात कह अध्यापन कार्य में अपनी अरुचि को तर्कसंगत बताते हैं। कुछ मामलों में तो यह भी देखने को मिला है एक बार प्राथमिक शिक्षक की नौकरी मिल जाने के बाद वह व्यक्ति शहरों में अपने लिए कोई दूसरा काम भी तलाश लेता है और गांवों में अपनी जगह किसी दूसरे व्यक्ति को आधा वेतन देने की बात कहकर बिठा देता है। सब कुछ इतनी अच्छी तरह और आपसी मिलीभगत से होता है कि उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई भी नहीं होती। इसलिए अध्यापकों की स्थिति सुधारने की जरूरत है। साथ ही उन्हें भी अध्यापन कार्य को एक सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में लेना होगा।
एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह कि हमारे यहां कई तरह के स्कूल हैं। सरकारी स्कूल, सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल, निजी स्कूल। निजी स्कूलों की फीस इतनी अधिक होती है कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए उसमें अपने बच्चे को पढ़ाना सपने जसा होता है। हालांकि सरकार ने निजी स्कूलों को भी गरीब बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने के लिए कहा है, लेकिन वे इसके खिलाफ कोर्ट चले गए हैं। उन्हें कैसे इसके लिए तैयार किया जाए, यह एक महत्वपूर्ण चुनौती होगी। अगर गरीबों के बच्चों को वहां दाखिला नहीं मिलता है तो उन्हें फिर सरकारी स्कूलों में दाखिला दिलाना होगा, जहां कक्षाओं और शिक्षकों की दिक्कत आड़े आएगी।
फिर बाल मजदूरी एक महत्वपूर्ण समस्या है। उन्हें काम करने से रोका भी नहीं जा सकता, क्योंकि कई परिवारों की रोजी-रोटी उनके बच्चों की कमाई से ही चलती है। लेकिन अनिवार्य शिक्षा के कानून की सफलता के लिए इस पर रोक लगाना जरूरी है, क्योंकि ढाबों, चाय की दुकानों पर काम करने वाले बच्चे आखिर स्कूल कब जाएंगे? यानी अगर बच्चे को काम करने से रोका जाता है तो उसके परिवार की रोजी-रोटी प्रभावित होती है और न रोका जाए तो यह कानून बेमतलब हो जाता है। इसलिए हमें उन परिस्थतियों को समाप्त करना होगा, जिसके कारण बच्चे बाल मजदूरी के लिए मजबूर होते हैं।
इसके अलावा अभी तक सरकार ने यह तय नहीं किया है कि शिक्षा का कंटेंट क्या हो? बच्चों को पढ़ाया क्या जाए? प्राथमिक शिक्षा का अभी तक का जो कंटेंट है, वह बहुत पिछड़ा है। इसे परिष्कृत करने की जरूरत है। ऐसे कंटेंट विकसित करने की जरूरत है, जिससे बच्चों की सृजनात्मक क्षमता उभरकर सामने आए और पढ़ाई के बाद वे आर्थिक व सामाजिक रूप से स्वावलंबी नागरिक बन सकें। कुल मिलाकर, यह एक अच्छी शुरुआत है, लेकिन इसके कारगर होने में वक्त लगेगा।
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