हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत यात्रा पर आए। उनके हाव-भाव और बेबाक अंदाज ने लोगों को आकर्षित किया। चाहे स्कूली बच्चों के साथ बॉलीवुड की फिल्मी धुनों पर थिरकने का मामला हो या सेंट स्टीफेंस के छात्रों से मुखातिब होने का या फिर संसद में दिया गया ओबामा का भाषण, मिस्टर एंड मिसेज ओबामा की हर अदा पर लोग वाह-वाह कर उठे। इन सबके बीच भारत और अमेरिका के आपसी संबंधों की बात भी उठती रही। इस पर मैंने बात की वरिष्ठ स्तंभकार महें्र वेद से। पेश हैं बातचीत के प्रमुख अंश :
शीत युद्ध के समय को छोड़ दिया जाए तो भारत और अमेरिका के संबंध पहले से ही अच्छे रहे हैं। जब भारत ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा था, तब भी अमेरिका हमारी आजादी का हिमायती था। अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने कई बार ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल से भारत को आजादी देने की बात कही थी। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि भारत का झुकाव न चाहते हुए भी सोवियत संघ की ओर हो गया और अमेरिका से हमारे संबंध बहुत मधुर नहीं रह गए। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने द्विध्रुवीय विश्व में किसी एक तरफ होने के बजाय, गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई, जिसकी विश्वभर में प्रशंसा हुई। कुछ ही साल पहले आजाद हुए भारत के इस फैसले से दुनियाभर में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी। लेकिन गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने के बावजूद व्यवहार में सोवियत संघ से करीबी का परिणाम अमेरिका से दूरी के रूप में सामने आया। आजादी के करीब डेढ़ दशक बाद 1962 में चीन से हुए युद्ध के दौरान भारत को अमेरिका से मदद भी मिली थी। लेकिन 1971 में बांग्लादेश युद्ध के दौरान अमेरिकी मदद पाकिस्तान को मिली। 1980 के दशक तक भारत अमेरिका के लिए बहुत महत्वपूर्ण नहीं था। हालांकि 1974 में पहला परमाणु परीक्षण कर भारत ने दुनिया को अपनी परमाणु ताकत का एहसास करा दिया था, लेकिन तब उससे प्रभावित होने और उसे परमाणु शक्ति संपन्न देशों की सूची में शामिल करने के बजाय अमेरिका ने भारत पर कई प्रतिबंध लगा दिए थे। लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद एकबार फिर परिस्थितियां बदलीं। उदारीकरण और वैश्वीकरण विश्व अर्थव्यवस्था का एक अहम हिस्सा हो चला था। भारत ने भी 1990-91 में इस आर्थिक नीति को अपनाया और आज उसकी गिनती विश्व की एक सशक्त अर्थव्यवस्था के रूप में होती है। एक दशक में ही भारत ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक अहम मुकाम हासिल कर लिया। यही वह दौर था, जब दुनिया का सबसे शक्तिशाली समझा जाने वाला देश भारतीय अर्थव्यवस्था से प्रभावित हुआ। उसे अपने उत्पादों के लिए भारत एक बेहतर बाजार नजर आने लगा। यही वजह है कि वर्ष 2000 से एक के बाद एक तीन अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने भारत का रुख किया। बिल क्लिंटन के बाद जॉर्ज बुश और अब ओबामा। यानी पिछले एक दशक में तीन अमेरिकी राष्ट्रपति भारत आए, जबकि आजादी के बाद से 1978 तक यानी करीब तीन दशक में तीन अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने भारत का रुख किया था। 1978 में जिमी कार्टर के बाद करीब दो दशक उपरांत वर्ष 2000 में बिल क्लिंटन भारत आए थे। फिर 2006 में जॉर्ज बुश और अब ओबामा ने भारत यात्रा को अहम समझा। साफ है कि अमेरिका वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की ताकत को पहचानने लगा है। अपनी इस यात्रा के दौरान ओबामा ने सारा जोर दोनों देशों के बीच व्यापार पर दिया। उनके साथ अमेरिकी उद्योगपतियों का एक प्रतिनिधिमंडल भी भारत आया। मुंबई में उन्होंने दोनों देशों के बिजनेस डेलीगेट मीट में शिरकत की। दोनों देशों के बीच 10 अरब डॉलर का सौदा भी हुआ। भारत यात्रा से पहले ही उन्होंने साफ कर दिया था कि वे इस बार सिर्फ देने ही नहीं, बल्कि भारत से कुछ लेने भी जा रहे हैं। अमेरिका में मंदी के दौरान बेरोजगार हुए लोगों के लिए नए रोजगार के लिए ओबामा की उम्मीदें भारत से हैं, जिसे उन्होंने बार-बार जाहिर किया। यानी भारत आज सिर्फ मांगने या लेने की स्थिति में नहीं है, बल्कि देने की क्षमता भी उसमें है और वह भी अमेरिका जसे शक्तिशाली देश को। इसलिए व्यवसायिक दृष्टि से अमेरिका और भारत के संबंध पिछले दो दशक में बेहतर हुए हैं।
जहां तक भारत यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति का पाकिस्तान न जाने का फैसला है, तो भारत के पक्ष में है। दिल्ली में भारत उनसे पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और अन्य संगठनों के खिलाफ बयान दिलवाने में कामयाब रहा, लेकिन फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि अगले साल जब वह पाकिस्तान की यात्रा पर जाएंगे, जसा कि उन्होंने कहा है, तो उनके तेवर किस तरह के रहेंगे। क्योंकि पाकिस्तान भी अमेरिका के लिए उतना ही अहम है, जितना भारत। अमेरिका दक्षिण एशिया में अपनी प्रभावपूर्ण उपस्थिति चाहता है और इसमें पाकिस्तान उसके लिए काफी मददगार है। पाकिस्तान में अमेरिका का एक बड़ा युद्ध बाजार है। फिर अफगानिस्तान में उसकी उपस्थिति के लिए भी पाकिस्तान का सहयोग जरूरी है। अमेरिका वहां रसद या युद्ध सामग्री कराची के रास्ते ही भेज सकता है। भारत भी वहां आधारभूत संरचना के विकास कार्य में लगा है, लेकिन उसके लिए भी पाकिस्तान के रास्ते ही वहां जाया जा सकता है, क्योंकि भारतीय सीमा सीधे अफगानिस्तान से नहीं मिलती। अमेरिका बार-बार अफगानिस्तान छोड़ने की बात कह रहा है, क्योंकि वहां बड़ी संख्या में उसके सैनिक हताहत हो रहे हैं। लेकिन यह उसके लिए आसान नहीं होगा, क्योंकि अफागानिस्तान से अमेरिका के जाते ही वहां पहले जसे हालात हो जाएंगे। इससे दक्षिण एशिया में सामरिक रूप से अमेरिका की स्थिति कमजोर होगी। यही वजह है कि आतंकवादी गतिविधियों के लिए पाकिस्तान की धरती के इस्तेमाल की बात जानते-बूझते हुए भी वह पाकिस्तान से बिल्कुल किनारा नहीं कर सकता। इस बीच अमेरिका अफगानिस्तान से कुछ हासिल नहीं कर पाया है। आतंकवादियों की आशंका में उसके ड्रोन हमले का शिकार आम लोग हो रहे हैं। बम लोगों के घर और मस्जिदों में गिर रहे हैं, जिससे उनमें रोष पनप रहा है। यानी अमेरका के लिए वहां बने रहना भी मुश्किल है और हटना भी।
कश्मीर पर अमेरिकी प्रशासन औपचारिक ढंग से बार-बार कहता है कि यह दोनों देशों का आपसी मसला है और दोनों इसे बातचीत से हल करें, लेकिन अनौपचारिक ढंग से अमेरिका आज भी इसे विवादित क्षेत्र मानता है। अमेरिका ने भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट के लिए समर्थन देने की बात कही है, लेकिन यह भी सच है कि जब तक कश्मीर का मसला सुलझ नहीं जाता तब तक उसे सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता नहीं मिल सकती। फिर इस दौड़ में जर्मनी, जापान और ब्राजील जसे देश भी हैं। इसके अलावा, पाकिस्तन कभी नहीं चाहेगा कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता मिले और इसमें चीन उसकी मदद करेगा। इसलिए सुरक्षा परिषद के की स्थाई सदस्यता के लिए अमेरिका का समर्थन भारत को लॉलीपॉप पकड़ा देने जसा है। उसका असली मकसद भारत से अपने व्यापारिक हित साधना है। ओबामा बार-बार भारत के साथ व्यापक आर्थिक सहयोग समझौते (सीईसीए) पर जोर दे रहे हैं, जिससे दोनों देनों के निजी क्षेत्रों में निर्बाध व्यापार हो सके। हालांकि इससे सार्वजनिक क्षेत्र को कोई फायदा नहीं होगा। भारत ने अब तक यह संधि सिर्फ सिंगापुर से की है और मलेशिया से इसके लिए बातचीत जारी है, जिसे जल्द ही अंजाम दे देने की संभावना है। व्यवसायिक दृष्टि से अमेरिका से करीबी का फायदा भारतीय बाजार को भी है, लेकिन यह भी सच है कि अमेरिका के साथ हमारी नजदीकी ने हमें भी उसके दुश्मनों के निशाने पर कर दिया है। आने वाले दिनों में भारत अलकायदा और इससे संबद्ध संगठनों का निशाना बन सकता है।
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