एशियाड में नौकायन में सोना जीतने वाले बजरंग लाल ताखड़ का कारनामा जहां गर्वोन्नत करता है, वहीं उनकी कहानी दु:खी करती है। कहानी वही पुरानी उपेक्षा की है। खेल संघ भले उनकी कामयाबी पर अपनी पीठ थपथपाए, पर ताखड़ की कामयाबी शुद्ध उनकी है। मेहनत, अभ्यास और लगन से इसे उन्होंने अर्जित किया है। ऐसे ही दूसरे खिलाड़ियों की तरह उन्हें भी बुनियादी सुविधाएं मयस्सर नहीं थीं। हमारा सौभाग्य यह है कि इस आपराधिक किस्म की लापरवाही के बावजूद बजरंग लाल, बिजेंदर, सुशील, साइना जसे खिलाड़ी अपनी जिद और अपने दम पर विजेता बनने और बाज वक्त पदक भी जीत लाते हैं।
राष्ट्रमंडल खेलों के बाद बड़ी बेसब्री से सभी को एशियाड का इंतजार था। देशभर की नजर चीन के ग्वांगझू शहर पर टिकी थी। राष्ट्रमंडल खेलों में खिलाड़ियों के शानदार प्रदर्शन ने देशवासियों को गदगद कर दिया तो एशियाड में अपेक्षाकृत कमजोर प्रदर्शन ने लोगों में निराशा पैदा की। लेकिन इस खेल के दौरान भी अब तक दो ऐसे मौके आए, जब वहां तिरंगा लहराया। यह मौका पहली बार पंकज आडवाणी ने बिलियर्डस में सोना जीतकर दिलाया तो दूसरी बार यह कामयाबी सूबेदार बजरंग लाल ताखड़ के नाम रही। ताखड़ ने देश को न केवल सोना दिलाया, बल्कि नौकायन में यह उपलब्धि पाकर उन्होंने इतिहास रच दिया है। एशियाड के इतिहास में यह पहला मौका है, जब देश को नौकायन में सोना मिला है।
बजरंग की कामयाबी ने एक बार फिर यह साबित किया है कि हौसला बुलंद हो तो मुश्किलें सफलता की राह में अड़चन नहीं बनतीं। राजस्थान के सीकर जिले के एक दूर-दराज के गांव मगनपुरा में जन्मे और पले-बढ़े बजरंग की सफलता की कहानी किसी किंवदंती से कम नहीं लगती। एक ऐसा गांव, जहां की परिस्थितियां नौकायन के लिए बिल्कुल भी अनुकूल नहीं। राजस्थान के कई दूसरे गांवों की तरह यह भी पानी की समस्या से जूझ रहा है। लेकिन बजरंग ने सोना जीता भी तो नौकायन में। वह भी पुरानी और उधार की नाव लेकर, क्योंकि 30 सदस्यीय नौकायन दल के लिए सरकार ने जो नौकाएं मंगाई थीं, वे एशियाड जाने तक उन्हें नहीं मिल पाई थीं। ऐसे में उन्हें 2002 एशियाड में इस्तेमाल हुई नौकाओं का ही इस्तेमाल करना पड़ा और कुछ नौकाएं सेना से भी उधार लेनी पड़ी।
निश्चत रूप से बजरंग ने यह कामयाबी अपने आत्मविश्वास, अभ्यास और समर्पण भाव से ही पाई है। वरना टिन से ढके एक छोटे से कमरे में मूलभूत सुविधाओं से वंचित चालीस लोगों के साथ रहकर तो इस कामयाबी की बस कल्पना की जा सकती है। तमाम खेल प्राधिकरण, जो बजरंग की कामयाबी पर आज अपनी पीठ थपथपा रहे हैं, ने कभी खिलाड़ियों की सुविधाओं को बहुत गंभीरता से नहीं लिया। राष्ट्रमंडल खेलों में भी कई ऐसे खिलाड़ी थे, जिन्होंने सरकारी सुविधाओं से वंचित रहकर भी अपने जीवट के बल पर सफलता पाई। बजरंग भी उन्हीं में से एक हैं। हैदराबाद में जहां से बजरंग ने नौकायन का प्रशिक्षण पाया, वहां 40 और लोग भी थे और सभी को एक छोटे से हॉल में एक ही छत के नीचे दिन और रात बितानी पड़ती थी। कमरे का छत टिन से बना है, जो गर्मियों में बुरी तरह तपता है। ऊपर से हैदराबाद की गर्मी। खेल प्राधिकरण से रेफ्रिजरेटर, वाशिंग मशीन और रूम कूलर जसी सुविधाओं की उम्मीद नहीं थी, इसलिए सबने उन पैसों से अपने लिए ये सुविधाएं जुटाईं, जो उन्होंने अब तक छोटी-बड़ी प्रतियोगिताएं जीतकर पाई थीं। अभ्यास के लिए जिन नौकाओं का इस्तेमाल किया, वे भी आठ साल पुरानी थीं। अभ्यास के लिए जिस पानी में वे उतरते थे, वह भी बेहद प्रदूषित था। बजरंग को इसका मलाल भी है। वे साफ कहते हैं कि अगर खिलाड़ियों को बेहतर सुविधाएं मिली होतीं तो वे और अच्छा प्रदर्शन कर सकते थे। उन्हें इस बात का भी अफसोस है कि नौकायन के लिए देश में एक भी कृत्रिम झील नहीं है, जहां बेहतर प्रबंधन के बीच खिलाड़ी तन्मयता से अभ्यास कर सकें, जबकि चीन में ऐसी 14 कृत्रिम झीलें हैं। प्रबंधन भी उम्दा है, खिलाड़ियों को तमाम सुविधाएं भी मिल रही हैं। ऐसे में जाहिर तौर पर उनका प्रदर्शन बेहतर होगा ही।
सचिन तेंदुलकर को अपना रोल मॉडल मानने वाले बजरंग राजपूताना रायफल्स में नायक सूबेदार हैं। वर्ष 2001 में वे सेना में शामिल हुए थे। अपनी सफलता का श्रेय वे सेना को देते हैं। नौकायन से पहले वे बास्केट बॉल और हैंडबॉल में हाथ आजमा चुके हैं। लेकिन ब्रिगेडियर केपी सिंह देव (सेवानिवृत्त) ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी, जब उन्होंने उनसे नौकायन में हाथ आजमाने के लिए कहा। यह उनके जीवन का टर्निग प्वाइंट साबित हुआ। एशियाई खेलों में उन्होंने 2006 में पहली बार शिरकत की, जो दोहा में हुआ था। पहले एशियाई खेल में ही उन्होंने नौकायन में रजत पदक जीत लिया। लेकिन सोना न जीत पाने की कसक मन में रह गई। तभी उन्होंने तय कर लिया था कि अगले एशियाई खेलों में इसे पूरा करके ही दम लेंगे। इसके लिए उन्होंने चार साल कड़ी मेहनत की। मेहनत रंग लाई और आखिर उन्होंने सोना जीत लिया। उनकी जीत ने तिरंगे की शान भी बढ़ा दी। मेडल लेते वक्त चीन में तिरंगा ऊपर जाते हुए देखना सचमुच अद्भुत था। बकौल बजरंग, उनके जीवन का सबसे बड़ा क्षण। अब उनकी नजर ओलंपिक पर है। पिछले बीजिंग ओलंपिक में वे क्वार्टर फाइनल तक पहुंचे थे। इस प्रदर्शन को वे सुधारना चाहते हैं। बजरंग को हमेशा यह बात प्रेरित करती रही कि कामयाबी पाने की कोई उम्र नहीं होती। अगर सचिन 37 साल की उम्र में भी इतना बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं तो 29 वर्ष की उम्र में वे क्यों नहीं?
उम्र को वे पढ़ाई से भी जोड़कर नहीं देखते। शायद यही वजह है कि इस उम्र में भी वे पढ़ाई जारी रखे हुए हैं और राजनीति विज्ञान से स्नातक कर रहे हैं। इसकी वजह उनके परिवार की शैक्षणिक पृष्ठभूमि भी हो सकती है, क्योंकि पिता दौलाराम शिक्षक हैं। वैवाहिक बजरंग के दो बच्चे भी हैं। उनकी इस कामयाबी से पत्नी और बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं। पिता फूले नहीं समा रहे तो मां की आंखें भर आती हैं। बजरंग के गांव में भी इन दिनों जश्न का माहौल है। लोग नाच-गा रहे हैं, मिठाइयां बांट रहे हैं और एक-दूसरे को बधाई दे रहे हैं।
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