शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

दुई को दूर कर दिल से

गांधी से एक सबसे बड़ी चीज जो हम सीख सकते हैं वह है विचार और कर्म का एक्य। गांधी इसकी मिसाल थे। आज हम सब दोहरी जिंदगी जी रहे हैं। मौजूदा दौर में यह विकास का एक अहम हिस्सा बन गया है।

तीस जनवरी 1948 वास्तव में आजादी की प्रेरणा और स्वराज के सिद्धांत को गुमराह करने की साजिश थी। महात्मा गांधी को गोली मारने वालों ने सोचा था कि इससे गांधी के विचार मर जाएंगे, उनका दर्शन मर जाएगा। लेकिन छह दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद भी उनके विचार हमारे बीच मौजूद हैं। उनके विचारों और दर्शन को आधुनिकता और बाजारवाद की आंधी भी खत्म नहीं कर पाई।
दरअसल उस एक घटना में गांधी की मौत हुई ही नहीं थी, मौत हुई थी तो बस एक नश्वर शरीर की, क्योंकि गांधी किसी व्यक्ति का नाम नहीं, बल्कि वह तो एक दर्शन है, विचार है। बहुत से लोगों का यह भी कहना है कि मौजूदा दौर में गांधी विचार की प्रासंगिकता नहीं रह गई है, क्योंकि हालात अब पूरी तरह से बदल चुके हैं। लेकिन यह सच नहीं है। समाज जिन चुनौतियों से गुजर रहा है, उनसे पार पाने में ये विचार काफी हद तक कारगर साबित हो सकते हैं।
गांधी को गोली मारनेवाले नाथूराम गोडसे से लेकर हम सब आज तक दोहरी जिंदगी जी रहे हैं। गोडसे ने जब गांधी की प्रार्थना सभा में प्रवेश किया था तो उसके चेहरे और हावभाव को देखकर कोई भी उसके इरादों का अंदाजा नहीं लगा सकता था। उसने झुककर गांधी को प्रणाम किया और फिर गोली मार दी। उसके चेहरे और कृत्य में जो भेद था, वह आज भी देखने को मिलता है। हम जो हैं वह दिखना नहीं चाहते। यह आज विकास के दौर का अहम हिस्सा बन गया है। निश्चय ही, इस तरह की जिंदगी किसी भी स्वस्थ समाज के हित में नहीं है और इनसे पार पाने में गांधी विचार एवं दर्शन कारगर सिद्ध हो सकते हैं।
गांधी हमेशा भारत के नवनिर्माण में अंतिम व्यक्ति को कसौटी मानते थे, जिसकी आज भी जरूरत है। खादी ग्रामोद्योग, कुटीर उद्योगों के माध्यम से उन्होंने आम लोगों में आत्मविश्वास जगाने की कोशिश की। उनका यह भी मानना था कि समाज की कमजोरियों को दूर किए बगैर स्वराज नहीं आ सकता और अगर आ भी जाए तो टिक नहीं सकता। इसलिए जिंदगीभर उन्होंने सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया।
गांधी ने निरंतर सत्य के साथ प्रयोग किया। लेकिन कभी उन्होंने यह नहीं कहा कि उन्होंने जिस सत्य को ढूंढ़ निकाला है, वही अंतिम है। वह हमेशा आम लोगों को भी सत्य के प्रयोग के लिए प्रेरित करते रहे। लेकिन यह कहना कभी नहीं भूले कि इसकी कीमत चुकाने के लिए भी तैयार रहें। उन्होंने स्वयं सत्य के साथ प्रयोग किया और इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकाई।
आजाद भारत में गांधी पर तरह-तरह के आरोप लगते रहे। पाकिस्तान विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराने के साथ-साथ यह भी कहा गया कि उन्होंने एक संप्रदाय विशेष के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाई। लेकिन उन पर आरोप लगाने वाले वही लोग हैं, जिन्होंने कभी सोचा था कि 30 जनवरी 1948 के बाद गांधी का अस्तित्व नहीं रहेगा। वे यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं कि आखिर कैसे गोली लगने के बाद भी गांधी जिंदा हैं और इसलिए उन पर तरह-तरह के आरोप लगाकर आम लोगों के मन में उनके विचारों के प्रति कटुता पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं।
मुङो तो लगता है कि आज हमारा देश ही नहीं, दुनिया गांधी की तरफ फिर से देख रही है। मेरा विश्वास है कि वह गांधी के पास लौटेगी भी। हिंसा के इस दौर से पार पाने के लिए अहिंसा का मार्ग ही अपनाना होगा।
जहां तक बॉलीवुड की बात है तो गांधी दर्शन को वहां (फिल्मों में) नहीं ढूंढ़ा जा सकता। यह एक मनोरंजन उद्योग है और इसमें गांधी के विचारों को उसी तरह पेश किया गया है। समाज में समय-समय पर कई महापुरुष हुए और लोगों ने उन्हें अलग-अलग नजरिये से देखा। गांधी को भी देखने और दिखाने के सिलसिले में बॉलीवुड की ऐसी ही कोशिश रही। कुल मिलाकर गांधी के विचारों में आस्था रखने वाले की हैसियत से इन्हें बहुत संतोषजनक नहीं कहा जा सकता।

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