शनिवार, 28 मार्च 2009

जन्म-मरण सोनागाछी

‘बॉर्न इनटू ब्रॉथेल्सज् कोलकाता के देह-व्यापार की मंडी सोनागाछी के बच्चों पर बना वृत्तचित्र था। 2005 में इसे भी ऑस्कर का खिताब मिला। लेकिन इसके आठ बाल कलाकार में से सिर्फ चार ही शिक्षा पा सके। एक ने तो अपनी मां के परंपरागत पेशे को ही अपना लिया और एक का कुछ पता नहीं। न सिर्फ इनकी, बल्कि ऐसे अनेक बच्चों की जिंदगी में उजाला नहीं भर सका।

आज हर तरफ ऑस्कर में आठ खिताब अपनी झोली में करने वाले ‘स्लमडाग मिलेनियरज् की धूम है। सभी खुश हैं, गदगद हैं। कलाकार से लेकर फिल्म निर्माण से जुड़े सभी सदस्य और वे भी, जो किसी न किसी तरह इससे जुड़ाव महसूस करते हैं। इस फिल्म से एशिया की सबसे बड़ी झुग्गीबस्ती मुंबई के धारावी के लोगों को बेहतर जिंदगी के लिए उम्मीद की एक किरण नजर आने लगी है। लेकिन कितने बच्चों की जिंदगी ‘स्लमडॉग मिलेनियरज् के मुख्य किरदार जमाल की तरह अंधेरे से निकलकर उजाले में आ पाएगी, कहना मुश्किल है।

ऑस्कर की खिताबी घोषणा के बाद एक अंग्रेजी अखबार ने चार साल पहले के एक वृत्तचित्र में काम करने वाले बच्चों की जो कहानी छापी, वह हमारे सामाजिक यथार्थ को सामने लाती है, जो निश्चय ही तकलीफदेह है। चार साल पहले देह व्यापार की सबसे बड़ी मंडी कोलकाता के सोनागाछी के बच्चों पर बने वृत्तचित्र ‘बॉर्न इनटू ब्रॉथेल्सज् ने भी ऑस्कर तक का सफर तय किया था। 2005 में उसे सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र का खिताब मिला था। अमेरिकी निर्देशक जेना ब्रिस्की और रॉस कॉफमैन ने देहव्यापार में संलग्न महिलाओं के बच्चों के हाथों में कैमरे देकर उन्हें एक बेहतर जिंदगी के गुर सिखाए थे। वृत्तचित्र सोनागाछी में देहव्यापार को मजबूर ऐसी मांओं के बच्चों पर कें्िरत है, जो फोटोग्राफी सीखकर अपने जीवन में उजाला करते हैं।

तब उन बच्चों की बेहतर जिंदगी को लेकर तमाम दावे किए गए थे। आशा जगी कि वे उस जिंदगी से उबरने में कामयाब रहेंगे, जिससे पार पाने की तमाम कोशिशों के बाद भी उनकी मांएं कामयाब नहीं हो सकीं। उम्मीद की गई कि वेश्यालय की आंच अब उन बच्चों के दामन नहीं झुलसाएगी। वे भी समाज में दूसरे लोगों की तरह एक बेहतर व सम्मान की जिंदगी बिता पाएंगे। लेकिन चार साल बाद जब उन किरदारों को तलाशा गया, तो मालूम हुआ कि ऑस्कर की चमक-दमक तक पहुंचने के बाद भी दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा।

वृत्तचित्र में फोटोग्राफी से अपने जीवन में उजाला भरने वाले सोनागाछी के उन बच्चों में से कुछ को जिंदगी फिर उसी मोड़ पर ले आई, जहां से वे चले थे। इसके आठ किरदारों में से एक वेश्यावृत्ति की राह चुनने को मजबूर हो गई। ऑस्कर की घोषणा के कुछ महीने बाद ही उसने अपनी मां का परंपरागत धंधा अपना लिया। जब फिल्म बनी थी, तब वह नाबालिग थी, लेकिन आज बालिग है और उसकी गिनती सोनागाछी की पांच हजार पूर्ण कालिक वेश्याओं में होती है। फिल्म से उसे और उसकी मां को जो आशा जगी थी कि अब वह देहव्यापार की इस मंडी से बाहर निकल पाएगी और सम्मानपूर्वक जिंदगी बिताएगी, धरी की धरी रह गई। यह फिल्म सोनागाछी वेश्यालय की वह दीवार नहीं तोड़ पाई, जिसकी चारदीवारी में उसकी मां उलझकर रह गई थी। वह कभी गरीबी और उस वातावरण से नहीं उबर पाई, जिसके सपने उसने फिल्म निर्माण के बाद देखे थे।

वृत्तचित्र में भूमिका निभाने वाली एक अन्य लड़की पिछले दो साल से गायब है। किसी को उसके बारे में जानकारी नहीं है। फिल्म रिलीज होने के बाद उसने कुछ दिन तक कोलकता की उस चैरिटी संस्था के लिए काम किया था, जिसने वृत्तचित्र के निर्माण में मदद दी थी। लेकिन कुछ समय बाद ही उसने चैरिटी संस्था को अलविदा कर दिया और शादी कर ली। लेकिन आज दो साल हो गए हैं, किसी को उसके बारे में कुछ नहीं पता।

फिल्म के आठ किरदारों में से केवल चार को शिक्षा का मौका मिला, शेष कहीं अंधेरों में ही गुम हो गए। चार में से दो को विभिन्न संस्थाओं की मदद से अमेरिका में पढ़ाई का मौका मिला, जबकि दो अन्य कोलकाता में ही पढ़ रहे हैं। एक अन्य लड़की की कुछ दिनों पहले कोलकाता में ही शादी हो गई, जबकि आठवां किरदार आज भी बेरोजगार है और सोनागाछी में ही जिंदगी के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर कुछ तलाशाने की कोशिश में जुटा है।

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