शनिवार, 28 मार्च 2009

मुस्कान को तरसतीं लाखों पिंकियां

पिंकी खुशकिस्मत थी कि उसकी मुस्कुराहट वापस आ गई। उस जसे ‘होंठ कटवाज् बच्चों की ओर इस साल ऑस्कर जीतने वाले वृत्तचित्र ‘स्माइल पिंकीज् ने ध्यान खींचा है। देश में ऐसे दस लाख बच्चे हैं। हर साल 35 हजार इस विकृति के साथ जन्म लेते हैं और महज दस हजार रुपए के इलाज के अभाव में जीवनभर इसका दंश ङोलने को अभिशप्त होते हैं।

‘स्माइल पिंकीज् कहानी है एक ऐसी लड़की की, जो पैदा होती है कटे होंठ के साथ। इसलिए आसपास के लोग और साथी-संगी उसे ‘होंठ कटवाज् के नाम से बुलाते हैं। कोई भी उसे अपने में शामिल नहीं करता। न मोहल्ले के बच्चे और न ही स्कूल के। सामाजिक तिरस्कार ङोलती इस बच्ची की जिंदगी के सपने रंग भरने से पहले ही बिखर जाते हैं। वह स्कूल जाना बंद कर देती है, घर से बाहर निकलना बंद कर देती है। मां-बाप के पास इतने पैसे नहीं कि अपनी बिटिया का इलाज करा सकें, उसका ऑपरेशन करा सकें, ताकि वह भी सामान्य जिंदगी जी सके। ऐसे में वे भी दुआ करने लगते हैं, ‘ऐसी जिंदगी से तो बेहतर है कि बेटी मर जाए।ज्

लेकिन इसी बीच ‘स्माइल ट्रेनज् नामक न्यूयार्क की चैरिटी संस्था आगे आती है और डॉक्टर सुबोध की मदद से उसका ऑपरेशन होता है, बिल्कुल मुफ्त। उस पर वृत्तचित्र बनता है और वह ऑस्कर तक का सफर तय करती है। आज हर किसी की जुबां पर ‘स्माइल पिंकीज् का नाम है। ऑस्कर में पहले नामांकन और बाद में सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र का खिताब जीतने के बाद दुनियाभर के लोगों ने टेलीविजन और अखबारों में छपे फोटो के माध्यम से पिंकी की मुस्कुराहट देखी, उसकी खुशी देखी।

लेकिन यह भी एक बड़ा सच है कि यदि इस वृत्तचित्र ने ऑस्कर तक का सफर नहीं तय किया होता, तो आज शायद ही किसी को ‘स्माइल पिंकीज् का पता होता और उन्हें पिंकी की मुस्कुराहट देखने को मिलती। इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि ऑस्कर जीतने के साथ ही पिंकी जसे कटे होंठ वाले बच्चों और बड़ों के लिए मुश्किलें खत्म हो गईं। हां, इतना जरूर है कि इससे ऐसे लोगों के लिए आशा की एक नई किरण जगी है। लेकिन ऐसे लोगों के प्रति सामाजिक नजरिये में परिवर्तन आज भी एक चुनौती है। वैसे भी कहा जाता है कि हमारे यहां के लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर है। वे बहुत जल्दी चीजों को भूल जाते हैं। शायद ही कुछ दिनों बाद लोगों को इस वृत्तचित्र के संदेश याद रहे कि ऐसे लोगों को भी सम्मान से जीने का हक है।

पिंकी का ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर सुबोध भी इस बात से भलीभांति परिचित हैं। शायद यही वजह है कि लास एंजिल्स में ऑस्कर समारोह से लौटने के बाद उन्होंने इस फिल्म को तमाम बड़े शहरों में दिखाने की योजना बनाई है, ताकि समाज को ऐसे लोगों के प्रति संवेदनशील बनाया जा सके। निश्चय ही यह एक अच्छी कोशिश होगी, क्योंकि पिंकी जसे बच्चों की मुस्कुराहट लौटाने के लिए जितनी जरूरत सर्जरी की है, उससे कहीं अधिक आवश्यकता ऐसे बच्चों को प्रेम और स्नेह की है।

अब जरा आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो ‘स्माइल ट्रेनज् के सौजन्य से अब तक 50 हजार बच्चों के होंठ की सर्जरी की जा चुकी है। लेकिन आज भी हमारे देश में करीब 10 लाख कटे होंठ वाले बच्चे हैं, जो ऑपरेशन का इंतजार कर रहे हैं। हर घंटे करीब तीन बच्चे कटे होंठ के साथ पैदा होते हैं और प्रत्येक साल इनकी संख्या करीब 35 हजार होती है। हर सात सौ में से एक बच्चा इस विकृति का शिकार है, पर सबकी किस्मत पिंकी जसी नहीं होती।

इसकी सर्जरी में तकरीबन 10 हजार रुपए खर्च होते हैं, लेकिन जसे-तैसे सिर्फ दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पाने वाले लोगों के पास न तो इतने पैसे होते हैं और न ही इतनी जानकारी कि सर्जरी करा अपने बच्चों को एक बेहतर भविष्य दे सकें। ऐसे में बच्चे सामाजिक दंश ङोलते हुए ही बड़े होते हैं। न तो उचित शिक्षा मिल पाती है और न ही अच्छी नौकरी। सामाजिक तिरस्कार ङोलने को मजबूर इन बच्चों की मानसिक हालत का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। बहरहाल, उम्मीद की जा सकती है कि ‘स्माइल पिंकीज् से ऐसे बच्चों की मुस्कुराहट लौटाने में कामयाबी जरूर मिलेगी।

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