गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

गठबंधन राजनीति में तोलमोल

गठबंधन राजनीति ने निश्चित रूप से क्षेत्रीय दलों की स्थिति मजबूत की है। वे कें्र से अपना हक अधिक अधिकारपूर्वक ले रहे हैं। समर्थन देने के नाम पर कें्र से वित्तीय संसाधन या विभिन्न मामलों में अधिक स्वायत्तता हासिल करना उनके लिए आसान हो गया है। गठबंधन सरकार चाहे भाजपा के नेतृत्व में रही हो या कांग्रेस के नेतृत्व में, यह स्थिति कमोबेश हर सरकार में रही है। 2जी स्पेक्ट्रम मामले में पूर्व संचार मंत्री ए राजा पर सरकार की चुप्पी गठबंधन राजनीति का ही नतीजा है। सरकार अपने एक महत्वपूर्ण घटक दल ्रविड़ मुनेत्र कषगम (्रमुक) को नाराज नहीं करना चाहती थी। शायद यही वजह रही कि लंबे अरसे तक सरकार इस पर मौन रही। न तो कैग की रिपोर्ट को गंभीरता से लिया और न ही जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी की उस शिकायत पर कोई जवाब दिया, जिसमें राजा के खिलाफ कार्रवाई के लिए प्रधानमंत्री से अनुमति मांगी गई थी। अब संसद में हंगामा हो रहा है। कामकाज ठप है। सुप्रीम कोर्ट ने भी जब इस बारे में सवाल किया तो सरकार बचाव की म्रुा में है। वहीं, कांग्रेस अपने बचाव में हमलावर हो गई है। वह स्पेक्ट्रम आवंटन की 1998 से जांच कराने की मांग कर रही है, जब भाजपा की सरकार थी।
इस बीच, प्रधानमंत्री कैग को नसीहत दे रहे हैं कि वह जानबूझकर और भूलवश हुई गलती में फर्क करना सीखे। विपक्ष मामले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराने की मांग पर अड़ा है तो सरकार सीबीआई को मामला सौंपकर अपनी जिम्मेदारी पूरी करने का दावा कर रही है। राजा प्रकरण पर हंगामा पहले भी हो चुका है। पिछले दो साल से 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की खबर सुर्खियों में है, लेकिन राजा की कुर्सी पर आंच नहीं आई। शायद इसलिए, क्योंकि वे यूपीए के एक अहम घटक दल ्रमुक का प्रतिनिधित्व करते थे और पार्टी सुप्रीमो के खास भी हैं। लेकिन जब बात बढ़ी तो सरकार को यह कड़ा फैसला लेना पड़ा। लेकिन इससे पहले सरकार को ्रमुक प्रमुख करुणानिधि से ‘अनुमतिज् लेना पड़ा। यही वजह रही कि इस्तीफे से 24 घंटे पहले राजा का एक पैर दिल्ली में तो एक चेन्नई में रहा। गृह मंत्री पी चिम्बरम और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी फोन पर लगातार करुणानिधि के संपर्क में रहे। साफ है कि सरकार राजा को विदा करने से पहले अपनी स्थिरता सुनिश्चित कर लेना चाहती थी। राजा पर कार्रवाई को लेकर सरकार की स्थिरता का सवाल इस रूप में भी सामने आता है कि ऐसी अटकलों के तुरंत बाद तमिलनाडु की विपक्षी पार्टी अन्ना्रमुक ने ्रमुक का समर्थन न रहने की स्थिति में अपना समर्थन देने की पेशकश कर डाली। यह अलग बात है कि यूपीए को फिलहाल अन्ना्रमुक के समर्थन की जरूरत नहीं पड़ी। अगर ऐसा होता तो जाहिर तौर पर यूपीए को यह समर्थन अन्ना्रमुक की शर्तो पर ही मिलता।
सरकार को समर्थन दे रहे क्षेत्रीय दलों की मोलतोल की यह ताकत पिछले दो दशक में बढ़ी है, जब किसी एक पार्टी को चुनाव में समर्थन नहीं मिलने के कारण गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ। गठबंधन राजनीति की जो मजबूरी आज यूपीए की है, वही भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार की भी रही। राजग सरकार को भी ऐसी ही स्थिति का सामना तेलुगू देशम पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और अन्ना्रमुक जसी बड़ी पार्टियों की वजह से करना पड़ा। तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी रेल मंत्रालय की मांग पर अड़ी रहीं तो चं्रबाबू नायडू की टीडीपी लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी से कम पर नहीं मानीं। अन्ना्रमुक ने भी कें्र पर दबाव डालकर राज्य की राजनीति को प्रभावित करने वाले कई फैसले करवाए। तब एक मामले में डीएमके प्रमुख करुणानिधि की उनके घर से आधी रात को हुई गिरफ्तारी एक बड़ा मुद्दा बना था। इसे अन्ना्रमुक प्रमुख जयललिता के दबाव में कें्र के इशारे पर उठाया गया कदम बताया गया। साफ है, क्षेत्रीय दलों ने कें्र में अपनी भागीदारी का फायदा खूब उठाया। उन्हें राज्य की राजनीति के अनुकूल जब जिसके साथ की जरूरत हुई, उन्होंने उनका दामन थामा और अधिक संसदीय सीटें जीतने की अपनी राजनीतिक शक्ति का भरपूर दोहन किया। ममता बनर्जी फिलहाल यूपीए सरकार में हैं, जो कभी राजग का हिस्सा थीं। पश्चिम बंगाल में अपने राजनीतिक नफे-नुकसान को देखते हुए वे यूपीए से भी खूब मोल तोल कर रही हैं। सीमित राज्यों में प्रभाव रखने वाली वामपंथी पार्टियां, जो यूपीए के पहले कार्यकाल में उसका हिस्सा थीं, आज अलग रुख रखती हैं। टीडीपी राजग का साथ छोड़कर तीसरे मोर्चे का एक अहम घटक हो गया है। यानी गठबंधन की राजनीति में सरकार का नेतृत्व चाहे कांग्रेस करे या भाजपा, क्षेत्रीय दलों का कदम अपने राज्यीय हितों को ध्यान में रखते हुए ही उठता है।

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