गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

नई नहीं है गठबंधन राजनीति की अवधारणा

(वरिष्ठ पत्रकार देवदत्त से बातचीत पर आधारित.)

गठबंधन की राजनीति इन दिनों भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुकी है। यूं तो भारतीय राजनीति में बहुदलीय व्यवस्था का प्रावधान है, लेकिन आजादी के बाद से 1980 के दशक तक यहां की राजनीति पर कमोबेश कांग्रेस का प्रभुत्व रहा। लेकिन उसके बाद गठबंधन राजनीति का दौर शुरू हुआ। कोई भी पार्टी अपने बलबूते सरकार बनाने की स्थिति में नहीं रही। उसे सहयोगियों की जरूरत पड़ने लगी। गठबंधन राजनीति पर मैंने बात की वरिष्ठ पत्रकार व चिंतक देवदत्त से। पेश हैं बातचीत का सारांश :


भारतीय राजनीति में गठबंधन राजनीति कोई नई चीज नहीं है। जब से चुनावी राजनीति शुरू हुई, गठबंधन राजनीति भी अस्तित्व में है। इसके माध्यम से सत्ता में विभिन्न दलों की भागीदारी सुनिश्चित करने का प्रयास किया जाता है। भारत में इसका सार आजादी के पहले से ही मौजूद है। 1937 का भारत सरकार अधिनियम भी इसका उदाहरण है, जब प्रांतीय स्वायत्तता के माध्यम से सत्ता व शक्ति में विभिन्न प्रांतों की भागीदारी सुनिश्चित की गई। गठबंधन सरकारों में आज वही भागीदारी विभिन्न राजनीतिक दलों को मिल रही है। सीधी सी बात है, यह भागीदारी का मामला है। जनआंदोलनों में भी भागीदारी के इस फॉर्मूले को खूब तरजीह दी गई। चाहे वह आजादी के लिए चलाया गया आंदोलन हो या कोई अन्य आंदोलन, हर जगह इस बात की पुष्टि होती है कि लोगों की भागीदारी के बगैर कोई आंदोलन सफल नहीं हुआ। विभिन्न आंदोलनों में लोगों की भागीदारी अपने अधिकारों को लेकर उनकी जागरुकता का ही परिणाम रहा। आज वही जागरुकता राजनीतिक दलों में है। विभिन्न राज्यों में लोग अपने अधिकारों को लेकर जागरूक व मुखर हो रहे हैं। आजादी के बाद से लंबे अरसे तक सत्तासीन कांग्रेस से जब उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हुईं तो लोगों ने नई पार्टियां भी बनाईं। दो दशक पहले तक इन दलों का प्रदर्शन राज्यों तक ही सीमित था। विधानसभा चुनाव में ही उन्हें अपनी ताकत दिखाने का मौका मिलता था। लेकिन विगत दो दशक में इन दलों का प्रभाव लोकसभा चुनाव में भी बढ़ा है। संसदीय चुनाव में अधिक सीटें जीतकर ये पार्टियां अब कें्र की सत्ता में भी भागीदारी कर रही हैं, क्योंकि कांग्रेस हो या भाजपा, कोई भी अपने दम पर बहुमत लेकर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं आ पा रही। ऐसे में जाहिर तौर पर उनकी राजनीतिक स्वायत्तता बढ़ी है और वे कें्र से पहले की तुलना में अधिक वित्तीय अनुदान या अन्य मदद लेने की स्थिति में हैं।
जहां तक भारत में गठबंधन सरकारों की बात है तो यहां सबसे पहली गठबंधन सरकार आजादी के ठीक बाद 1947 में बनी थी, जब सत्ता का हस्तांतरण हुआ था और देश में अंतरिम सरकार गठित हुई थी। उसके बाद देश में शुरू हुई चुनावी राजनीति में विभिन्न दलों की भागीदारी कहीं पीछे छूट गई। चाहे संसदीय चुनाव हो या विधानसभा चुनाव हर जगह कांग्रेस ने अपने दम पर बहुमत हासिल कर सरकार बनाई। आजादी के बाद यह 1960 के दशक का उत्तरार्ध था, जब कांग्रेस के खिलाफ बगावत के सुर निकलने लगे। इसी का परिणाम रहा कि 1967 में कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, जो संविद सरकारें थीं। यानी विभिन्न दलों को मिलाकर बनीं सरकारें। कें्र में 1977 में जनता पार्टी के नेतृत्व में भी गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, लेकिन वह गठबंधन सरकार नहीं थी, क्योंकि सभी दलों ने अपनी पहचान खोकर उसे जनता पार्टी में समाहित कर दिया था। आजादी के वक्त की अंतरिम सरकार के बाद वास्तविक गठबंधन सरकार दिसंबर, 1989 में विश्व प्रताप सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार थी, जो कई दलों को मिलाकर बनी संयुक्त मोर्चे की सरकार थी। इसमें किसी भी दल ने अपनी पहचान से समझौता नहीं किया। इसके बाद से ही देश में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हो गया। कांग्रेस हो या भाजपा, किसी को संसदीय चुनावों में बहुमत नहीं मिला और सरकार गठन के लिए मजबूरन इन दलों को क्षेत्रीय दलों का समर्थन लेना पड़ा। हालांकि आज भी देश के दो बड़े दल गठबंधन राजनीति को मानसिक रूप से स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। राजनीतिक मजबूरी में ही उन्होंने इसे अपनाया। खासकर, कांग्रेस अब भी इस सच को स्वीकार करने के लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं दिखती। इसकी वजह शायद लंबे समय तक कांग्रेस का अपने बलबूते सत्ता पर काबिज रहना है।
गठबंधन राजनीति ने निश्चत रूप से क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक मोलतोल की ताकत बढ़ा दी है। वे अपने अधिकारों को लेकर अधिक सजग हैं और कें्र से उसकी मांग भी हकपूर्वक करते हैं। कई मामलों में राज्यों की स्वायत्तता बढ़ी है। वहीं, क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव ने कें्र की नैतिक सत्ता को कमजोर किया है। लेकिन यह काफी हद तक कें्रीय नेतृत्व पर भी निर्भर करता है। संभव है कि किसी बड़े राजनीतिक कद का नेतृत्व कें्र की खोई नैतिक सत्ता को लौटा लाए। वरना यह भी हो सकता है कि छोटे राजनीतिक कद का नेतृत्व उसे और कमजोर कर दे। बहरहाल, विदेश नीति, वित्तीय संसाधन, सुरक्षा और सैन्य मामलों पर अब भी कें्र मजबूत स्थिति में है। राष्ट्र राज्य की ताकत कहीं से भी कम नहीं हुई है। कुल मिलाकर, क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव ने संघवाद को बढ़ाया है।

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