-देवें्र शर्मा
औद्योगिक विकास के खिलाफ कोई नहीं है, लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि यह प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर न हो।
इसमें दो राय नहीं कि ग्लोबल वार्मिग दुनियाभर में एक बड़ी चिंता का विषय है। लेकिन जहां तक भारत का सवाल है, यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। यहां गरीबी, भूख, रोजी-रोटी का मामला सबसे बड़ा मुद्दा है। स्वयं एक सरकारी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की 77 प्रतिशत आबादी 20 रुपए प्रतिदिन से भी कम की आय पर गुजारा करती है। ऐसे में ग्लोबल वार्मिग भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय कैसे हो सकता है?
जहां तक दुनियाभर में इसे लेकर किए जाने वाले प्रयासों का सवाल है तो इसमें कहीं कोई ईमानदारी या निष्ठा नहीं दिखती। हर जगह ग्लोबल वार्मिग रोकने के नाम पर बस कुछ औपचारिकताएं की जा रही हैं। इसके वास्तविक कारण पर कोई विचार-विमर्श नहीं करना चाहता और न ही कोई इसे दूर करने के लिए गंभीरता से सोचना चाहता है।
दुनिया भर में आज ग्लोबल वार्मिग की जो समस्या है, उसके लिए आर्थिक नीतियां काफी हद तक जिम्मेदार हैं। सच कहा जाए तो विभिन्न देशों के अर्थ विशेषज्ञों ने ही पर्यावरण का बेड़ा गर्क किया है। विकास के नाम पर उन्होंने हमें धोखा दिया है। इन लोगों ने ऐसी नीतियां बनाईं, जो एक तरफ तो हमें विकास के मार्ग पर ले जाती हैं, जबकि दूसरी तरफ पर्यावरण के लिए खतरा पैदा करती हैं। दरअसल, भारत सहित दुनियाभर के अर्थ नीति विशेषज्ञों ने आर्थिक विकास की जो नीतियां तैयार की या आज भी कर रहे हैं, वे पर्यावरण की कीमत पर तय की गईं। उनमें कहीं भी पर्यावरण संरक्षण का ध्यान नहीं रखा गया।
पर्यावरण संरक्षण को लेकर यदि जनता की जागरुकता की बात की जाए तो हमारे देश की जनता इसे लेकर बहुत जागरूक नहीं दिखती। वास्तव में जनता मतलबी है। जब तक उसे खुद पर्यावरण के नुकसान से कोई हानि होती नहीं दिखती, वह आवाज नहीं उठाती। हर साल पांच जून को पर्यावरण दिवस के मौके पर ही बस लोगों को इसकी याद आती है। जगह-जगह छिटपुट कार्यक्रम आयोजित कर लोग पर्यावरण को लेकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। इसे लेकर कोई सतत व मुखर आवाज नहीं उठाता। लोगों ने प्राकृतिक संसाधनों का भी निजीकरण कर लिया है। एयर कंडीशनर के जरिए हवा तक को कैद कर लिया है। संपन्न एवं सुविधाभोगी लोगों ने खुद को गर्मी से बचाने के लिए तो घरों और निजी वाहनों में एसी लगा लिए हैं, लेकिन कभी यह नहीं सोचा कि इससे बाहर गर्म हवा निकलेगी जो दूसरे लोगों को झुलसाएगी और वे इसकी तपिश ङोलेंगे। साफ है कि बाहर वालों की फिक्र किसी को नहीं होती। कोई नहीं सोचता कि एसी से बाहर कितना तापमान बढ़ता है।
इसी तरह नैनो कार को लेकर सभी हर्षित हैं, उल्लसित हैं, लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि इससे पर्यावरण कितना दूषित होगा। वास्तव में हम सब शोषक हैं। हमें ग्लोबल वार्मिग की फिक्र तब होती है, जब तापमान 45 डिग्री से ऊपर पहुंच जाता है। जहां तक पर्यावरण संरक्षण को लेकर जनता की जागरुकता का सवाल है, इसके लिए मीडिया को आगे आना होगा। उसे एक मुहिम चलानी होगी। उसे बार-बार जनता को याद दिलाना होगा कि यह सिर्फ एक दिन की समस्या नहीं है कि छोटे-बड़े कार्यक्रम आयोजित कर इससे पार पा लिया जाए।
पर्यावरण को लेकर दूसरे देशों की चिंता और भारत की चिंता में कोई विशेष फर्क नहीं है। हर जगह इसे लेकर एक सा रवैया है। हमारे देश की सरकारों का भी रवैया इसे लेकर कोई संतोषजनक नहीं रहा है। अब तक की सभी सरकारें केवल आर्थिक विकास बढ़ाने के पक्ष में रहीं, पर्यावरण संरक्षण की चिंता किसी को नहीं रही। सभी सरकारों ने पर्यावरण संरक्षण के बजाए औद्योगिक विकास को तरजीह दी और इसके लिए पर्यावरण की बलि देने में भी संकोच नहीं किया। सभी सरकारें बस इसी नीति पर काम करती रहीं कि यदि पर्यावरण औद्योगिक विकास के मार्ग में आता है, तो इसे खत्म कर दो। पिछले सप्ताह देश में बनी नई सरकार से भी पर्यावरण संरक्षण को लेकर कोई बड़ी उम्मीद नहीं है। लेकिन यदि सरकार वास्तव में पर्यावरण संरक्षण को लेकर गंभीर प्रयास करना चाहती है, तो सबसे पहले विकास का मॉडल ठीक करना होगा। प्राकृतिक संसाधनों को बचाने पर ध्यान देना होगा। वास्तव में हम औद्योगिक विकास के विरोध में नहीं हैं, लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि यह प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर न हो।
शनिवार, 12 सितंबर 2009
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